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सोमवार, 24 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी की पुण्यतिथि पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद में 20,21 व 23 जुलाई 2023 को तीन दिवसीय ऑनलाइन परिचर्चा का आयोजन

 प्रख्यात साहित्यकार स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी की पुण्यतिथि पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर वाट्स एप पर संचालित समूह साहित्यिक मुरादाबाद में 20,21 व 23 जुलाई 2023 को तीन दिवसीय ऑनलाइन परिचर्चा का आयोजन किया गया।

 मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ की 23 वीं कड़ी के तहत आयोजित कार्यक्रम के संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि 5 जनवरी 1930 को जन्में प्रकाश चंद्र सक्सेना ’दिग्गज मुरादाबादी’ की साहित्य यात्रा शायर अब्र अहसनी गुन्नौरी के संरक्षण में  ग़ज़ल और नज़्म लेखन से शुरू हुई।  उन्होंने अनेक  गीत भी लिखे लेकिन उन्हें ख्याति बाल साहित्यकार के रूप में मिली। जीवन के अंतिम दशक में उनका रुझान अध्यात्म की ओर हो गया और वह भक्ति साहित्य लेखन की ओर अग्रसर हो गए। उनकी दो काव्य कृतियां ’सीता का अंतर्द्वंद’ और ’श्री करवाचौथ की व्रत कथा’  प्रकाशित हो चुकी हैं। उनका निधन 21 जुलाई 2009 को हुआ ।

       प्रख्यात बाल साहित्यकार राजीव सक्सेना ने कहा दिग्गज मुरादाबादी को  न केवल बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ थी बल्कि उनके मनोजगत या कल्पना जगत में भी गहरी पैठ थी। उनकी  बाल कविताएं बाल मनोभावों और संवेदना की अभिव्यक्ति के साथ-साथ चित्रात्मकता की दृष्टि से भी अद्भुत हैं । 

       रामपुर के साहित्यकार जितेंद्र कमल आनंद ने कहा वह रामपुर की आध्यात्मिक साहित्यिक संस्था काव्य धारा के संस्थापकों में एक थे,जो वर्तमान में भी संचालित हो रही है । 

अशोक विश्नोई ने कहा कि दिग्गज जी की रचना धर्मिता का फ़लक बहुत बड़ा था वह बाल रचनाकारों में सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते थे। उनकी बाल कविताएं इतनी सरल भाषा में होती थीं कि उनको आसानी से याद किया जा सकता है।दिग्गज जी ने बाल रचनाओं के साथ साथ गीत,ग़ज़ल, दोहे, और माँ दुर्गा के भजन भी लिखे हैं। 

रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा दिग्गज जी एक ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने एक और बाल गीत लिखे, सामाजिक जागृति को आधार मानकर गीत लिखे वहीं दूसरी ओर अपनी संस्कृति की पहचान को हृदय में स्थान देते हुए करवा चौथ की व्रत कथा को हिंदी खड़ी बोली में आम जनता के लिए प्रस्तुत भी किया। 

       आगरा के साहित्यकार एटी जाकिर ने कहा दिग्गज जी उच्च कोटि के नज्मकार थे उनकी एक नज्म ’एक थी झांसी वाली पर यह झांसे वाली रानी है’ बहुत प्रसिद्ध हुई थी। 

डॉ प्रेमवती उपाध्याय ने कहा वह एक निर्भीक निडर और स्वाभिमानी कलमकार थे। 

 मुंबई के साहित्यकार प्रदीप गुप्ता ने कहा उनकी रचनाएं बालमन को छू लेने में सक्षम थी।   

        डॉ मोहम्मद आसिफ ने उनकी उर्दू रचनाओं को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया।

     डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा वह अपनी कविताओं और पढ़ने के लहजे से वास्तव में दिग्गज थे।

      स्वदेश भटनागर ने कहा वे शब्द शिल्पी ही नहीं एक भाव शिल्पी की तरह जीवन की संवेदनाओं के मर्म स्थल तक पहुंचकर अपने वाक्य विन्यास गढ़ते थे। 

      श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा  बाल साहित्य के अतिरिक्त उनकी रचनाएं जहां भक्ति रस से ओतप्रोत हैं वहीं श्रंगार, अंतर्द्वंद, पीड़ा और सामाजिक विषमताओं पर भी उनकी लेखनी चली है।  

      उदय प्रकाश सक्सेना उदय ने कहा उनकी रचनाओं में सीधी सरल भाषा में हास्य व्यंग्य का समावेश होता था जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता।

      अशोक विद्रोही ने उनके अप्रकाशित साहित्य को पाठकों के समक्ष लाने की आवश्यकता पर बल दिया। 

      मीनाक्षी ठाकुर ने कहा दिग्गज जी ने अपनी बाल रचनाओं में बालकों के मन में उतर कर उनके भीतर छिपे भावों को कागज पर बहुत सादगी से उकेरा है। 

      दुष्यंत बाबा ने कहा उनकी साहित्य साधना में लेखन के कई पड़ाव दिखाई पड़ते हैं उन्होंने बाल कविताएं लिखी, गीत गजल नज्में लिखी और अध्यात्म दर्शन से ओतप्रोत रचनाएं भी लिखीं। 

राजीव प्रखर ने कहा  कीर्तिशेष दिग्गज जी की बाल कविताएं बचपन को खंगालने की अद्भुत क्षमता से ओतप्रोत हैं। 

मीनाक्षी वर्मा ने कहा उनकी आध्यात्मिक रचनाएं मन और आत्मा को तृप्त कर देने वाली हैं। 

राशिद हुसैन ने कहा उन्होंने बड़ी सरल सहज भाषा में बच्चों को जानकारी देने वाली रचनाएं लिखी है।

  कार्यक्रम में दयानंद आर्य महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकांत गुप्ता, राम किशोर वर्मा, धन सिंह धनेंद्र, मुजाहिद चौधरी, डॉ प्रीति हुंकार, डॉ कृष्ण कुमार नाज, मनोरमा शर्मा, नकुल त्यागी, सुभाष रावत राहत बरेलवी, शिव कुमार चंदन, डॉ इंदिरा रानी और सरिता लाल  आदि ने हिस्सा लिया । आभार निधि सक्सेना,विधि सक्सेना और सोनिया सक्सेना ने व्यक्त किया।













✍️ डॉ मनोज रस्तोगी

मुरादाबाद 244001

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

रविवार, 23 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव सक्सेना का संस्मरणात्मक आलेख ..... स्मृतियों की छाँह में---दिग्गज मुरादाबादी


यह जेठ की एक भरी दोपहरी थी ---इतवार का एक अलसाया दिन ---मैं गहरी नींद में सोया था।

  "राजीव जी, राजीव जी ...."

अचानक डोरबेल जोर से घनघना उठी।

 मेरी निद्रा भंग हो गयी।

 मैंने उठकर दरवाजा खोला।द्वार पर मेरे पड़ोसी और नगर के प्रसिद्ध बालसाहित्यकार शिव अवतार सरस जी खड़े थे।

  "क्या कर रहे हैं?" शिव अवतार जी ने सवाल दागा।

 "कुछ नहीं,सो रहा था ..."

"आइए, आज आपको बालसाहित्य की एक हस्ती  से मिलवाता हूँ ..." सरस जी ने कुछ पहेली बुझाने वाले अंदाज में कहा।

  "बालसाहित्य की हस्ती ?

  "हाँ, बाल साहित्य की हस्ती! जल्दी चलिए... वे आपका इंतज़ार कर रहे हैं।"

 मैं बिना  चूं -चपड़ किये झटपट कपड़े बदलकर सरस जी के साथ हो लिया।

 जब भी कोई साहित्यकार सरस जी के घर आते वे उनसे मेरी मुलाकात अवश्य कराते थे। पहले भी वे कई साहित्यकारों से मिलवा चुके थे।

 बैठक में एक ऊँचे -लम्बे दृढ़काय और भव्य व्यक्तित्व वाले वृद्ध सोफे पर विराजमान थे।मैंने उनके ऊपर दृष्टिपात किया।

 "दादा ,ये हैं राजीव सक्सेना --बच्चों के लिए कथाएं और विज्ञान लिखते हैं।बहुत छपते हैं ...." सरस जी ने कहा ।फिर दिग्गज जी की ओर संकेत करते हुए कहा --"आप हैं शहर के नामचीन कवि --दिग्गज मुरादाबादी जी ...."

  "अरे मैं राजीव जी के बारे में अच्छी तरह से जानता हूँ,इनकी रचनाएं आजकल खूब छप रही हैं।शहर में इनकी बड़ी चर्चा है। मैं दिग्गज मुरादाबादी ..'

  यह कहकर दिग्गज जी ने मुझे गले लगा लिया।

 "हाँ, दादा !मैंने भी आपका नाम खूब सुना है।आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी जो आज पूरी हो गयी...." मैंने कहा।

 सरस जी कुछ क्षणों के लिए अंदर चले गए। दिग्गज जी बोले --"राजीव जी,आजकल क्या लिख रहे हैं ? कुछ सुनाइये... कोई बाल कविता ?"

 "दादा!मैं बालकविताएँ नहीं लिखता ।हाँ, किशोरावस्था में कुछ लिखी थीं, कुछ छपी भी हैं बड़ी पत्रिकाओं में,कुछ अमरउजाला में सेवक जी के साथ ..." 

 "हाँ-हाँ ,वही सुनाइये ..."

 मैंने दिग्गज जी के आग्रह पर अपनी एक दो बाल -कविताएं उन्हें सुनाईं।

 सुनकर दिग्गज जी बोले --"बढिया हैं,मजेदार भी और बालमनोभावों के अनुरूप भी।बस , कुछ छंद दोष है...." 

 "हाँ, दादा! दरअसल,ये कविताएं मैंने किशोरावस्था में रची थीं।तब छंद का ज्ञान मुझे नहीं था।अब मैं गद्य लिखता हूँ।" 

 फिर मैंने उनसे अपनी बालकविताएँ सुनाने का आग्रह किया।

 बस, फिर क्या था ! 

 जैसे मैंने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया या फिर किसी असाध्य वीणा के तार को छूकर साहस झंकृत कर दिया।

 "तो सुनिए...."

  एक के बाद एक बालकविताओं का पाठ शुरू हो गया।उन्होंने अपनी प्रसिद्ध बालकविता --'सर्कस' और 'दीवाली' सहित अनेक कविताओं का पाठ एक सांस में कर डाला।एक के बाद एक कविता।दिग्गज जी रौ में बहते हुए कविता पाठ कर रहे थे और में कुछ स्तब्ध  और ठगा -सा या कहूँ कि सम्मोहित -से उनका काव्य पाठ सुन रहा था।

  जल्दी ही एक  'ट्रांस 'मेरे ऊपर हावी होने लगी।समय कुछ क्षणों के लिए जैसे ठहर गया।एक पल के लिए तो मुझे लगा कि  शायद महाप्राण कवि निराला की आत्मा न सही तो उनकी छाया अवश्य दिग्गज जी के चेहरे पर आ विराजी है।कविता पाठ करते हुए उनका चेहरा एक अनोखी आभा से उद्दीप्त हो उठा था।

 मेरे लिए दिग्गज जी को सुनना सचमुच एक आह्लादकारी अनुभव था,एक कभी न भुलाया जा सकने वाला अनुभव।

  दिग्गज जी का कविता पाठ समाप्त हुआ। हम जैसे किसी आभासी दुनिया से निकलकर वापस अपनी दुनिया में आये।

 दिग्गज जी ने केवल बालकविताएँ ही नहीं बल्कि अपने चुनिंदा गीत भी सुनाए--सब एक से बढ़कर एक,कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेमिसाल।सचमुच दिग्गज जी एक सच्चे कवि थे,कृत्रिमता या आडंबर से बिल्कुल दूर।अंदर बाहर से बिल्कुल एक।

 कविता पाठ समाप्त हुआ तो उन्होंने पूछा --"कहिए,राजीव जी!कैसी लगीं मेरी कविताएं?"

 "दादा,शब्द नहीं मिल रहे हैं मुझे यह बताने के लिये।"

  फिर तो मेरे उनके बीच खूब साहित्यिक चर्चा हुई,विशेषकर नगर के कुछ कथित गीतकारों के बारे में और नगर के साहित्यिक परिदृश्य पर भी। 

 यह दिग्गज जी से मेरा पहला साक्षात्कार था -उनके कवि से पहला परिचय जिसका श्रेय निश्चित ही सरस जी को जाता है।

 मेरी और दिग्गज जी की तरंग -दै धर्य मिल गई।मेरी और उनकी सोच और चिंताएं बालसाहित्य को लेकर समान थीं।

  फिर तो दिग्गज जी से अनगिनत बार मिलना हुआ।जल्दी ही वे मेरे परिवार के सदस्य बन गए --बिल्कुल अपने और घर के बुजुर्ग जैसे।मेरे घर में उनका सम्मान मेरे पिता से भी ज्यादा था और मेरी जीवन संगिनी सुनीता राजीव  उन्हें अपने ससुर यानी मेरे पिता से भी ज्यादा सम्मान देती थीं जबकि पुत्र ईशान भी उनसे खूब बतियाता था।ईशान के आग्रह पर उन्होंने न केवल कई बालकविताएँ रची थीं बल्कि बहुधा वह उनकी नई बालकविताओं का प्रथम श्रोता भी होता था।अगर रोजाना न सही तो प्रत्येक इतवार को उनका आगमन मेरे घर होता था।वे हमारे लिए एक ऐसे अतिथि थे  जिनके आगमन की बड़ी उत्कंठा से प्रतीक्षा रहती थी और मेरा परिवार सदैव उनके स्वागत को तत्पर रहता था --दिग्गज जी का व्यक्तित्व  था ही कुछ ऐसा -विराट किन्तु स्नेहिल और निरभिमानी।

 दिग्गज जी से बालसाहित्य के विभिन्न पहलुओं को लेकर बड़ी घनघोर और विचारोत्तेजक चर्चाएं होती थीं जिसमें हम दोनों ही नहीं बल्कि कभी -कभी मेरा परिवार यानी मेरी पत्नी पुत्र भी सक्रिय रूप से भाग लेते थे।जिससे बालसाहित्य के प्रति हमारी 'आइडियोलॉजी'और दृष्टि का भी विस्तार हुआ और अपनी रचनाधर्मिता को नई धार या नए तेवर देने में सहायता मिली।

  तो यह थी दिग्गज जी से मेरी पहली मुलाकात  जो सदैव के लिए मेरी स्मृतियों में अंकित हो गयी।

 यूं दिग्गज जी से जुड़ी ढेरों यादें हैं जो मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं-जिन्हें मैं पटल पर गाहे -बगाहे साझा करता रहूँगा।

एक तुम ही तो वाणासुर हो....

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एक रविवार --मैं घर में कुछ अनमना और उदास बैठा था।

 "ईशान.....!"

तभी घर के दरवाजे पर दिग्गज जी की धीमी आवाज सुनाई पड़ी। 

 आवाज पहचानते ही मेरी सारी उदासी एकदम उड़न -छू हो गयी।दिग्गज जी का सान्निध्य मिलने और उनसे बतियाने की बात सोचते ही मैं एक अनोखे उत्साह  से भर उठा।

 देर तक गप्पबाज़ी यानी साहित्यिक चर्चा  के बाद दिग्गज जी बोले --"राजीव जी,मुरादाबाद में एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष, जो प्रदेश शासन के मुखिया भी हैं , आ रहे हैं।उनका आगमन पर एक विशाल जनसभा होगी।मुखिया जी जनसभा को संबोधित करेंगे।पार्टी के ज़िला अध्यक्ष ने मुझसे आग्रह किया है कि कवि जी नेता जी के आगमन पर आपको भी जनसभा में कविता पाठ करना है।फिर नेता जी द्वारा आपको सम्मानित किया  जाएगा।बताइए,आपका क्या कहना है?मुझे नेता जी की जनसभा में जाना चाहिए या नहीं?"

 "हाँ -हाँ, दादा!जरूर जाना चाहिए...भला , हज़ारों की भीड़ और प्रदेश के मुखिया के सामने कविता पाठ करने का इससे बढिया मौका और कब मिलेगा !आप नेता जी की जनसभा में जरूर जाइये ..."

 "तो इसका मतलब यह कि आपकी सहमति है ?!"

 "हाँ, दादा ..."

  दिग्गज जी जब भी कोई नया काम करते मुझसे विचार -विमर्श अवश्य करते ।यद्यपि मैं उनकी संतान की उम्र का था तथापि वे मेरा बहुत सम्मान करते थे और  अपने प्रत्येक निर्णय में सम्मिलित अवश्य करते थे।

  आखिर नेता जी की जनसभा का दिन आ पहुंचा।

 भव्य मंच सजा था।जनसभा में हज़ारों की भीड़ नेता जी को सुनने के लिए आयी थी।दिग्गज जी भी मंच पर मौजूद थे।ज़िला अध्यक्ष ने उन्हें भी मंच पर बैठाया था।

  नेता जी का भाषण शुरू हुआ।

 नेता जी खूब हड़के -भड़के ।अपनी जांघों पर ताल ठोककर लोगों को हड़काने के अंदाज में खूब गरजे -बरसे । परशुराम जैसी उनकी भाव-भंगिमाएं देखकर उपस्थित जन समुदाय चकित और हैरान था।

 नेता जी के इस कोप का एक कारण था।दरअसल,उन दिनों नेता जी की प्रेस यानी मीडिया से पंगेबाजी चल रही  थी। उनकी पार्टी के गुंडों ने मीडिया संस्थानों के दफ्तरों में जमकर नेताजी के समर्थन में तोड़फोड़ और मीडिया कर्मियों से अभद्रता भी की थी ।उधर मीडिया ने भी नेता जी के प्रति मोर्चा खोल रखा था।

  इस पृष्ठभूमि में नेता जी ने लोगों को जलील करने के अंदाज में खूब अपनी भड़ास निकाली थी।

  नेता जी का भाषण समाप्त हुआ तो ज़िला अध्यक्ष को  दिग्गज जी की याद आयी ।

 ज़िला अध्यक्ष ने मंच से दिग्गज जी से नेता जी के सम्मान में कविता पाठ का आग्रह किया।

 "नहीं-नहीं,नेता जी का भाषण हो चुका है।अब मेरे कविता पाठ का कोई औचित्य नहीं है ..."दिग्गज जी ने विनम्रतापूर्वक कहा।

  "आइए तो,कोई कविता सुनाइए। नेता जी भी आपकी कविता सुनना चाहते हैं।" दिग्गज जी को संकोच करते देखा तो ज़िला अध्यक्ष ने पुनः दिग्गज जी से आग्रह किया।

 "आइये -आइये ,कवि जी।हम भी आपकी कविता सुनेंगे।कोई भी कवि जी की कविता सुने बिना नहीं जाएगा।सभी लोग बैठे रहें..." इस बार नेता जी ने स्वयं माइक थामकर घोषणा की तो लोग उत्कण्ठवश दिग्गज जी की कविता सुनने के लिए ठहर गए। 

 उधर दिग्गज जी कुछ असमंजस में थे कि कविता  सुनाएं या न सुनाएं?

  दरअसल,दिग्गज जी को नेता जी का ताल ठोंककर जनता को ललकारने वाले और जलील करने वाले पहलवानी अंदाज में भाषण देना मन ही मन अखर गया था।

 दिग्गज जी बेहद संवेदनशील किस्म के व्यक्ति तो थे ही कुछ -कुछ आशुकवि भी थे।जिस समय नेता जी भाषण दे रहे थे उनकी भाव -भंगिमा को लक्ष्य कर दिग्गज जी ने मंच पर बैठे -बैठे ही एक बेहद धारदार और तीखी व्यंग्य कविता रच डाली थे किंतु वे इसे नेता जी के सामने सार्वजनिक रूप से सुनाने के इच्छुक नहीं थे।

  दिग्गज जी ने नेता जी का कविता सुनाने का आग्रह विनम्रता पूर्वक ठुकरा दिया। 

  इस बार नेता जी कुछ तल्ख अंदाज में बोले --"कवि जी ,हम कह रहे हैं।आप सुनाइये अपनी कविता।सब आपकी कविता सुनेंगे।"

  "ठीक है,सुनाता हूँ" यह कहकर दिग्गज जी ने कविता आरंभ की --"नेता जी चिंघाड़ रहे थे

   एक -एक को मारूंगा,

  जो भी मेरे आड़े आया 

  उसको ही संहारूंगा....."

   बस, दिग्गज जी का इन पंक्तियों के उच्चारण करना था कि नेता जी के कान खड़े हो गए ।वे मन ही मन ही कुछ आशंकित हो गए --'पता नहीं यह कवि अब आगे क्या कहेगा?इसका क्या भरोसा -क्या कह दे?जरूर यह मेरे बारे में ही कविता पढ़ रहा है..." 

  नेता जी जब तक दिग्गज जी की मंशा भाँपते तब तक दिग्गज जी ने अपनी कविता आगे बढ़ा दी --

 "भीड़ में से कोई बोला-

वाह नेता जी ,क्या कहने हैं 

एक तुम ही तो वाणासुर हो

बाकी सब चूड़ी पहने हैं..."

  दिग्गज जी ने ज्यों ही ये पंक्तियां सुनायीं नेता जी के चेहरे पर स्याही बिखर गई।मंच को तो जैसे सांप सूंघ गया।कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छा गया।

 दिग्गज जी ने अपनी कविता के जरिये अपना काम कर दिया था।उन्होंने एक सजग और निर्भीक साहित्यकार होने का दायित्व निभाते हुए सत्ता के मुंह पर जोरदार तमाचा जड़ दिया था वह भी अपने अंदाज में और प्रदेश शासन के मुखिया के मुंह पर और भरे मंच पर।

 जनता ने दिग्गज जी की कविता का खूब आनंद लिया और जोरदार करतल ध्वनि कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।कुछ शोहदों ने जोरदार सीटियां भी बजायीं। 

 आखिर दिग्गज जी ने जनता के मन की बात कविता के जरिये और वह भी बेहद सारगर्भित और सटीक ढंग से कह दी थी।उन्होंने लेटिन अमेरिकी कवि पाब्लो नेरुदा के अंदाज में एक सच्चे जनकवि के तौर पर जान आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति दी थी और सत्ता के असली चरित्र को भी कुछ ही क्षणों में उजागर कर दिया था।

 बस , फिर क्या था।!

 कुछ क्षणों के लिए मंच पर अफरा-तफरी मच गई।नेता जी अपनी धोती संभालकर फुर्ती से मंच से नीचे की ओर भागे।

  दिग्गज जी ने अपनी एक छोटी -सी कविता से ही नेता जी के करीब एक घंटे के भाषण पर पानी फेर दिया ।यह होती है कविता की शक्ति और एक सच्चे ,प्रखर और निर्भीक कवि की पहचान।

 जनसभा समाप्त हुई और दिग्गज जी सीधे मेरे कार्यालय आये।

 उन्होंने मुझे सारा घटनाक्रम विस्तारपूर्वक सुनाया।

 "राजीव जी,कहीं मेरे खिलाफ कोई कार्रवाई तो नहीं होगी?मुझे बंद तो नहीं कर देंगे?"उनके चेहरे पर घबराहट साफ दिखाई दे रही थी।


 "नहीं दादा।आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा।अगर आपके खिलाफ कोई कार्रवाई की भी गयी तो यह अपने लिये गड्ढा खोदने वाली बात होगी ...आप चिंता न करें।चाय पियें और मेरे साथ घर  चलें।" मैंने कहा तो उन्हें ढांढ़स बंधा और वे मेरे साथ मेरे घर चले  आये।

 मीडिया ने इस घटना पर खूब चुटकी ली।अगले दिन कई समाचार पत्रों ने दिग्गज जी की इस छोटी कविता से ही पंक्तियां लेकर सुर्खियां बना दीं --

 "एक तुम ही तो वाणासुर हो -कवि ने दिखाया आईना"

 "बाकी सब चूड़ी पहने हैं --दिग्गज मुरादाबादी"

  सभी अखबारों ने करीब इसी तरह के शीर्षक टिकाए थे।

  यह घटना यादगार बन गयी।

  बाद में मैं और दिग्गज जी ही नहीं बल्कि मेरे परिवारीजन भी इस घटना को लेकर बहुत दिनों तक आनंदित होते रहे।जो साहस दिग्गज जी ने दिखाया था वह आज सचमुच दुर्लभ है, कम से कम साहित्यकारों के लिए तो दुर्लभ है ही।

नीरज जी को पत्र

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एक दिन की बात ---दिग्गज जी बड़े उत्साह के साथ मेरे घर आये।

 "राजीव जी,राजीव जी!आप नीरज जी को एक पत्र लिखिये...अभी...."दिग्गज जी ने काफी उत्तेजित स्वर में कहा।

 "कौन नीरज जी दादा?" मैंने पूछा।

 "अरे वही अपने गोपालदास नीरज...."

 "लेकिन उन्हें पत्र क्यों दादा?"

 "यह देखिये...."उन्होंने अपने छोटे -से बैग में संभालकर रखा एक कागज मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा।

 "यह पांचजन्य अखबार में छपी नीरज जी की कविता -'कश्मीर'है...इसमें छंद की ढेरों अशुद्धियां हैं...."

 नीरज जी और छंद दोष !यह बात सचमुच मेरी कल्पना के बाहर थी।

  "दादा ,यह कैसे हो सकता है?भला नीरज जी जैसा देश का सबसे बड़ा गीतकार छंद की गलती कैसे कर सकता है ?जरूर प्रिंट में गलती हुई होगी..."

  "नहीं,ये प्रिंट की गलती नहीं है।नीरज जी ने इस कविता में मात्राओं की भारी गड़बड़ की है।उनसे मात्राएं गिनने में गलती हुई है।आप उन्हें इस विषय में पत्र लिखिए..."

  दिग्गज जी ने पांचजन्य अखबार के उस पृष्ठ पर छपी कविता पर  जगह -जगह पेंसिल से निशान लगा रखे थे जहां नीरज जी से मात्राओं की गलती यानी छंद दोष हुआ था।

 प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता है?मैं हतप्रभ था। 

  "आप उन्हें पत्र लिखिए ..."इस बार दिग्गज जी ने एक पोस्टकार्ड मेरी ओर बढाते हुए कहा।वे पोस्टकार्ड भी अपने साथ लाये थे।

  "म.म..मैं ..भला मैं क्यों लिखूँ नीरज जी को पत्र?आप क्यों नहीं लिखते उन्हें पत्र ?"मैंने सहज प्रश्न किया।

  दरअसल ,मैं नीरज जी जैसे देश के शीर्षस्थ  कवि/गीतकार  को उनके छंद दोष को इंगित करते हुए पत्र लिखने में मन ही मन खासा हिचकिचा रहा था ।मुझे डर था कि कहीं वे मुझसे कुपित न हो जाएं।आखिर वे  समकालीन साहित्यजगत की सबसे बड़ी हस्ती थे।

  "बात दरअसल यह है कि लिखते हुए मेरे हाथ हिलते हैं,मेरा  राइटिंग भी अच्छा नहीं है।आपका राइटिंग सुंदर और संतुलित है और आपके पास बढिया भाषा भी है..."दिग्गज जी ने कहा।

  कुछ क्षणों के लिये मैं सोच में डूब गया।यह बात सही थी कि कुछ भी लिखते हुए वृद्धावस्था के कारण  दिग्गज जी के हाथों में कंपन होता था।वे लंबा ड्राफ्ट नहीं लिख सकते  थे।

  मैं बड़े असमंजस में था--दिग्गज जी को इनकार भी नहीं करना चाहता था और नीरज जी को उनके छंद दोष के बारे में पत्र लिखते हुए मुझे संकोच भी हो रहा था।

  "ठीक है दादा ,लिख दूँगा नीरज जी को पत्र ..किन्तु आज नहीं कुछ दिन बाद।'

 मैंने उन्हें टालने की गरज से कहा।

  बेचारे दिग्गज जी!कुछ क्षणों के लिए उदास हो गए।

  बात आई -गयी हो गयी।लेकिन दिग्गज जी ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा।वे जब भी मिलते मुझे कश्मीर कविता के विषय में नीरज जी को पत्र लिखने के लिए प्रेरित करते। 

  आखिर बहुत हीला-हवाली और ना -नुकर के बाद मैंने एक दिन नीरज जी को पत्र लिख ही डाला।

  अपने पत्र में मैंने विचलित कर देने वाली किन्तु संयत और शालीन भाषा का उपयोग किया था --ऐसी भाषा कि नीरज जी मेरे पत्र का उत्तर देने के लिए विवश हो जाएं।

 यह पत्र भी मैंने दिग्गज जी सामने ही लिखा था।

 दिन गुजर रहे थे।इस बीच दिग्गज जी  मुझसे  बराबर नीरज जी के पत्रोत्तर की जानकारी करते रहे।

  आखिर एक दिन इंतजार खत्म हुआ।नीरज जी ने मुझे पत्र का उत्तर भेज ही दिया।

  नीरज जी ने प्रारम्भ में तो कश्मीर कविता के विषय में जान -बूझकर अनभिज्ञता प्रकट करने की कोशिश की किन्तु अंत में चुपके से गलती को बड़ी सहजता से स्वीकार भी कर लिया।

  आखिर दिग्गज जी सही  साबित हुए।

 मैंने उन्हें नीरज जी का पत्र दिखाया तो उनके चेहरे पर अनायास ही एक वक्र  मुस्कान तैर गयी--एक विजयी मुस्कान!

  मैं इसे नीरज जी का बड़प्पन या महानता ही कहूंगा कि देश का शीर्षस्थ कवि होने के बावजूद उन्होंने मुझे पत्र का उत्तर दिया अन्यथा आज का कोई अहंकारी कवि तो इतनी जहमत भी न करता।

 अस्तु ,दिग्गज जी और नीरज जी से जुड़ी ये घटना एक यादगार बन गई और नीरज जी का उनके स्वयं के हस्तलेख में लिखा पत्र मेरे साहित्यिक खजाने की एक  अमूल्य  निधि बन गया जो आज भी  मैंने बड़े यत्न से संजो रखा है।

भरत मिलाप

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 इतवार का दिन और शाम का समय था।

  पूरा दिन निकला जा रहा था और दिग्गज जी का कहीं अता -पता नहीं था।मेरा मन ढेरों आशंकाओं से घिरा हुआ था --'क्या हुआ दिग्गज जी आज क्यों नहीं आए?कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है.....'

  मैं चिंतित -सा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।

   ठीक तभी दरवाजे पर लगी घंटी घनघना उठी।

  'आ गए दिग्गज जी ।'सोचता हुआ में उत्कंठापूर्वक दरवाजे की ओर भागा।

  यह क्या !

  दरवाजे पर शहर के पुरानी पीढ़ी के कवि /गीतकार राजेंद्रमोहन शर्मा 'श्रृंग' जी खड़े थे।

  मैं कुछ क्षणों के लिए चकित -सा उन्हें देखता रहा।दरअसल,श्रृंग जी अयाचित मेरे घर आये थे--बिना किसी कोई पूर्व सूचना के और वह भी पहली बार।

  औपचारिक अभिवादन और रस्मी बातचीत के बाद श्रृंग जी ने पूछा --"और ...दिग्गज जी से कब से मुलाकात नहीं हुई है?"

 "दादा ,यूं तो उन्हें आज ही आना था ,लेकिन पता नहीं अभी तक क्यों नहीं आये हैं?कहीं नाराज हो गए हों तो कह नहीं सकता।वैसे आज तक ऐसा हुआ नहीं है..."

  वैसे दिग्गज जी चाहे सारी दुनिया से  नाराज हो जाएं लेकिन मुझसे कभी नहीं रूठे।फिर भी 'क्षणे रुष्टा ,क्षणे तुष्टा' वाले उनके स्वभाव को दृष्टिगत करते हुए  मैंने श्रृंग जी से कह दिया ।

 तभी दरवाजे पर  धीमी  आवाज सुनाई दी --'"ईशान !

  आवाज पहचानते मुझे देर न लगी ।यह सचमुच दिग्गज जी ही थे।

  दिग्गज जी ने ज्यों ही श्रृंग जी को देखा तो उनके चेहरे पर एक भली मुस्कान तैर गयी --"अरे श्रृंग जी आप !आजकल कहाँ रह रहे आप ?"

  "यही सवाल में आपसे करूंगा दादा...मुझे आपसे बड़ी शिकायत है... आप मिलते ही नहीं है  कहीं शहर में।मैंने कहाँ -कहाँ नहीं ढूंढा आपको ...कई बार आपके घर भी गया लेकिन मेरा दुर्भाग्य आपके दर्शन ही नहीं हुए।फिर पता चला कि आप रविवार को राजीव जी के घर अवश्य जाते है सो आज मैं यह सोचकर चला आया की कम से कम यहां तो आपसे मुलाकात हो ही जाएगी।आप नहीं जानते दादा की में आपसे मिलने के लिए कितना व्यग्र और परेशान रहा हूँ..."

  "मैं भी आपसे मिलने को बेताब था....अब शिकायत दूर कर लेते हैं...आइए गले मिलते हैं...."

  यह कहकर दिग्गज जी ने श्रृंग जी को गले लगा लिया।

  फिर दोनों के सब्र का बांध  जैसे टूट पड़ा। दोनों कवियों की आंखों से अनायास ही आंसू बहने लगे।

' एक-दूसरे से मिलने की इतनी उत्कंठा,इतनी व्यग्रता!' 

 दोनों कुछ क्षणों तक यूं ही एक -दूसरे के गले लगे रहे।

  "दादा,यूं इतने दिनों तक दूर न रह करो...आपकी बहुत याद आती है।" श्रृंग जी ने कुछ लरजते हुए स्वर  या भर्राई हुई -सी आवाज में कहा।

 "अब मिलते रहेंगे..." 

 मैं हतप्रभ -सा मुंह बाए  शहर के दो बूढ़े कवियों का यह भरत मिलाप देख रहा था।यह सचमुच मेरे लिए बिल्कुल नया और अनोखा अनुभव था।कुछ क्षणों के लिए मुझे भी कुछ न  सूझा। सही बात तो यह है कि यह अप्रत्याशित भरत मिलाप देखकर मैं स्वयं भी स्तब्ध था।दिग्गज जी और श्रृंग जी ,दोनों की आयु मेरे पिता से भी ज्यादा थी और दोनों यूं गले लगे थे जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों के मेले में बिछुड़े दो भाई बहुत लंबे अरसे बाद मिल रहे हों।

 "पापा, मम्मी पूछ रही हैं कि कितने कप चाय बनेगी?" मेरे बेटे  ने बैठक में प्रवेश करते हुए पूछा तो दोनों संयत होकर अलग हो गए। 

   क्या बेमिसाल पीढ़ी थी ! 

 एक दूसरे -से मिलने , बोलने -बतियाने की यह व्यग्रता भला अब लोगों में कहां दिखाई पड़ती है?

    बरसों गुजरने के बाद आज जब स्वयं को 'साहित्यकार ' कहने वाले लोगों को अपने चेहरे पर मुखौटे चढ़ाए और मुस्कानों का जाल बिछाए  भीतरघात करते देखता हूँ तो उन दो बूढ़े कवियों (दिग्गज जी और श्रृंग जी) के भरत मिलाप की  यह घटना बरबस  मुझे याद आ जाती है जिसका  मैं अनायास ही साक्षी बना।फिर यादों का प्रोजेक्टर मेरे मानस पटल पर अपनी गहरी छाया डालने के बाद चुप हो जाता है 


✍️राजीव सक्सेना

डिप्टी गंज 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मो0-9412677565

गुरुवार, 20 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दिग्गज मुरादाबादी के संदर्भ में ए टी ज़ाकिर का संस्मरणात्मक आलेख..... "आ, लौट के आजा मेरे मीत "


शायद वर्ष 1972 था या 1973, उन दिनों मैं मुजफ्फरनगर से स्टेट बैंक की अपनी नौकरी छोड़ के मुरादाबाद  लौट चुका था और शायद "साईको" उपन्यास के अनुवाद की तैयारी में व्यस्त था।  परंतु , साहित्यिक गोष्ठियों व सम्मेलनों में गाहे-बगाहे जाता रहता था। एक शाम हमारे साहित्यिक मित्र और मेरे वरिष्ठ कवि डा विनोद गुप्त जी के निवास, सब्जी मंडी पर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन था। मैं भी आमंत्रित था। वहीं लम्बे चौड़े गोरे से चश्मा लगाये एक नवीन साहित्यकार से मेरा परिचय हुआ। उन्होंने अपना नाम प्रकाश चन्द्र सक्सेना ’दिग्गज’ बतलाया। वे सफेद पाजामें– कुर्ते में बड़े प्रभावशाली लग रहे थे, और काफी हंसमुख भी थे।

बोले, "अरे, जाकिर साहब, मैंने आपका बहुत नाम सुन रखा है। आज आपसे मिल कर तबियत खुश हो गयी, मेरी।"

मैं हंसा, " श्रीमन तबियत तो मेरी भी खुश क्या डबल खुश हो गयी आपसे मिल के !"

वे बोले, "मतलब, डबल खुश कैसे ? " मैंने समझाया, " सादर प्रणाम ! श्रीमन मेरे श्वसुर महोदय का भी यही नाम है, श्री प्रकाश चन्द्र सक्सेना ! उपस्थित सभी लोग हँसने लगे।

 ‌‌यही थी मेरी 'दिग्गज जी' से पहली मुलाकात की बानगी !

 ‌उन्होंने बड़े ऊंचे स्तर की उर्दू नज़्में में सुनाई ।

बस, उस शाम के बाद उनका बारादरी स्थित मेरे निवास पर आना-जाना होने लगा और हम अक्सर मिलने लगे।

 जब मिलते थे, तो सुनना-सुनाना भी हो जाता था। पर उस समय तक वो शायर

 " दिग्गज' थे, "दिग्गज मुरादाबादी 'नहीं! और सिर्फ उर्दू में कलम चलाया करते थे। एक शाम को अपने साथ एक अन्य वरिष्ठ साहित्यकार को मेरे घर ले आये, परिचय कराया श्री बहोरन सिंह वर्मा 'प्रवासी'! प्रवासी जी उच्च कोटि के कवि थे और तहसीली स्कूल में अध्यापन कार्य करते थे। वह" मैढ़ बालक" नामक एक बाल पत्रिका का संचालन भी करते थे। 

 अब हमारी काव्य गोष्ठियों में दिग्गज जी प्रवासी जी के साथ ही आने लगे। दिग्गज जी बहुत उच्च कोटि को नज़्मकार थे और मंच को जीत लेने वाली अनेक नज़्में कह चुके थे। मुझे उनका कलाम बहुत पसंद आता था और हम दोनों एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। उन्ही दिनों मुझे पता चला कि दिग्गज जी, मुरादाबाद कचहरी में अर्जी नवीस का काम करते थे।

शायद, एक बार मैं किसी काम से कचहरी के पोस्ट आफिस गया तो, कचहरी में जाकर उनके बस्ते पर बैठ कर  एक प्याला चाय भी पी आया। वहीं बातचीत में उनसे पता चला कि वे कटघर में पचपेड़ा नामक स्थान पर रहते थे। इसके बाद तो साहित्यक गोष्ठियों में वे हुल्लड़ मुरादाबादी, ललित मोहन भारद्वाज, पुष्पेन्द्र वर्णवाल, डा० विनोद गुप्ता, ओम प्रकाश गुप्ता, प्रवासी जी, कौशल शलभ और मक्खन जी के साथ मुझे मिल ही जाते थे। वैसे, उन्होंने बहुत कुछ कहा था, कहते ही रहते थे मगर उनकी एक नज़्म "झांसे वाली रानी" बहुत प्रसिद्ध हुई थी, मुझे भी पसंद थी। उसकी प्रारंभ की कुछ  पंक्तियां मुझे आज 52-53 वर्षों के बाद भी याद है?

सरल,सौम्य आकृति, मगर कुछ थोड़ी सी अभिमानी है ,

है प्रयाग से प्यार, कि जिससे इसकी जुड़ी कहानी है। 

सब लोगों,कुल अखबारों में खबर यही छपवानी है, 

कि एक थी झांसी वाली,पर यह झांसे वाली रानी है।

सैकुलर नारों की सारी शेखी  चकनाचूर हुयी, 

बाईस वर्षों में भी तुमसे नहीं गरीबी दूर हुयी। 

कुछ भी तुमसे हो न सका, पर इतनी बात ज़रूर हुयी, 

कि भूखी-नंगी भारत माता दूर-दूर मशहूर हुयी ।

 इस पर भी तू अपने मन में फूली नहीं समानी है। 

 एक थी झाँसी वाली पर ये झांसे वाली रानी है । (रचना काल 1969)

इसी प्रकार उनकी एक और नज़्म थी.. " मेहतर की बेटी ", उसे भी वो बड़े चाव से पढ़ते थे।

असल में उन दिनों कविता ' लुहार की लली' काफ़ी प्रसिद्धि पा रही थी, उसी से प्रभावित होकर दिग्गज जी ने यह कविता या नज़्म जो कुछ भी यह थी उसे लिखा। 

 प्रोफेसर एन० एल० मोयात्रा के घर पर होने वाली मासिक हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमनी काव्य गोष्ठी " बज़्मे मसीह" में दिग्गज जी हमेशा भाग लेते थे और खूब सराहे जाते थे।

परन्तु, इस सारे समय में वे जो डायरी अपने साथ लाते थे, उसमें  जो कुछ भी उनकी हस्तलिपि में होता था, वो सब उर्दू में ही होता था।

  इन कुछ महीनों के  साथ के बाद मेरा उनसे ही क्या मुरादाबाद से ही साथ छूट गया, जब मैं मुरादाबाद से प्रस्थान कर गया। पर उन्हें और उनके साहित्य और अपनत्व को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा । इसी लिये चाहता हूं, वो एक बार फिर हमारे बीच लौट आएं और अपने  क़लाम से हमें नवाज़ें !


✍️ ए टी ज़ाकिर 

 फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर,पंचवटी,पार्श्वनाथ कालोनी, ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड, आगरा -282 001  मोबाइल फ़ोन नंबर 9760613902, 847 695 4471

 मेल- atzakir@gmail.com

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर राजीव सक्सेना का आलेख ...बाल मन के चितेरे : 'दिग्गज' मुरादाबादी । यह आलेख श्री दिग्गज जी के जीवन काल में सागर तरंग प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2006 में प्रकाशित मेरी कृति ’समय की रेत पर’ में प्रकाशित हुआ है।



बाल मन के चितेरे : 'दिग्गज' मुरादाबादी

मुख्य धारा के प्रसिद्ध कवि डा० हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है कि अच्छा बाल साहित्य वह रच सकेगा जो बच्चा बन सके यानी बाल मन में प्रविष्ट हो सके। बाल साहित्य की इस कसौटी पर जो बाल कवि खरे उतरते है वे हैं 'दिग्गज' मुरादाबादी ।
'दिग्गज' जी को न केवल बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ है बल्कि उनके मनोजगत या कल्पना जगत में भी गहरी पैठ है। वयस्क होने के बावजूद स्वयं 'दिग्गज' जी के भीतर  बालपन अभी विद्यमान है।उनके भीतर का यह बालपन या बालक जब सक्रिय होता है तभी किसी अन्त: प्रेरणा के वशीभूत हो उनका बाल कवि वाला व्यक्तित्व भी सक्रिय हो जाता है। दरअसल, 'दिग्गज' मुरादाबादी स्वयं को बालकवि सिद्ध करने के लिए नहीं बल्कि बच्चों के कल्पना जगत में झांकने की कौतूहलता के कारण बालगीत या कविताएं रचने के लिए विवश होते हैं।
    5 जनवरी सन् 1930 को जिला बुलन्दशहर की तहसील अनूपशहर में जन्मे 'दिग्गज' मुरादाबादी का वास्तविक नाम प्रकाशचन्द्र सक्सेना है। उनके पिता मुन्शी रामचन्द्र सहाय सक्सेना एक रियासत के दीवान थे। 'दिग्गज' जी ने काव्य शास्त्र का ज्ञान अपने समय के प्रसिद्ध शायर अब्र हसन गुन्नौरी से प्राप्त किया। 'दिग्गज' जी की उर्दू साहित्य पर भी गहरी पकड़ है और उन्होंने बाल कविताओं के अलावा बहुत से गीत, नज्म और गज़लें भी लिखी है। आध्यात्मिक रूझान के कारण दिग्गज जी ने 'सीता का अन्तर्द्वन्द' और 'करवा चौथ' शीर्षक से काव्य प्रबन्धों की रचना भी की है।
    बाल कविताएं रचने की प्रेरणा 'दिग्गज' जी को प्रसिद्ध बाल कवि निरंकार देव 'सेवक' से प्राप्त हुई। यद्यपि सेवक जी से साक्षात्कार होने के पहले ही 'दिग्गज' जी बाल काव्य के क्षेत्र में निष्णात हो चुके थे तथा एक बाल कवि के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे। तथापि 'सेवक' जी का सान्निध्य प्राप्त होने पर 'दिग्गज' जी को उनसे बाल काव्य की अनेक बारीकियां समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सरसता, प्रवाहमयता और विलक्षण शब्द चयन के कारण 'दिग्गज' जी अपने समकालीन बाल कवियों से ही नहीं बल्कि अपने पूर्ववर्ती कवियों से भी श्रेष्ठतर जान पड़ते है तथापि वे विनम्रता पूर्वक अपने को निरंकार देव 'सेवक' का शिष्य स्वीकार करते है।

निरंकार 'देव' सेवक ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'बालगीत साहित्य' (इतिहास एवं समीक्षा) में 'दिग्गज' मुरादाबादी का उल्लेख बड़े आदर के साथ किया है 'सेवक' जी का यह ग्रन्थ आज बालगीत साहित्य के प्रामाणिक शोध ग्रन्थ के रूप में समादृत है और ऐसे ग्रन्थ में उल्लेख मात्र भी सचमुच किसी बाल कवि के लिए गौरव का विषय है। 'सेवक' जी ने 'दिग्गज' जी की बाल कविता 'दीवाली' का उल्लेख विशेष रूप से अपनी पुस्तक में किया है।

"लो फिर से दीवाली आई,
साथ अनेकों खुशियां लाई ।
खीलें और बताशे लाई,
बढ़िया खेल तमाशे लाई ।
छूट रही हैं आतिशबाजी,
सब प्रसन्न है सब है राजी ।
घर बाहर की हुई सफाई,
कहीं रंगाई कहीं पुताई ।
हर घर में पकवान बनें हैं,
बड़े बड़े सामान बने है ।
आज कहीं भी नही अंधेरा,
हुआ रात में दिन का फेरा ।
दीवाली की रात सुहानी,
है सारी रातों की रानी ।

'दिग्गज' जी की शब्दों और छंद पर गहरी पकड़ होने के कारण ही 'सेवक' जी ने यह टिप्पणी की है कि 'दिग्गज' जी को छंद में कहने की आदत सी बन गयी है। 'दिग्गज' जी की निर्विवाद काव्य प्रतिभा को सिद्ध करने के लिए यह टिप्पणी पर्याप्त है। सरल और छंदबद्ध होने के कारण उनकी बाल कविताओं / गीतों में अद्भुत गेयता है और बच्चे उन्हें सहज ही गुनगुना सकते है।

"दिग्गज' जी की बाल कविताएं बाल मनोभावों और संवेदना की अभिव्यक्ति साथ-साथ चित्रात्मकता की दृष्टि से भी अद्भुत है। दरअसल 'दिग्गज' जी बच्चों के मनोजगत से एक ऐसा अन्तवैयक्तिक तादात्म्य स्थापित करने में सफल रहते है कि उनकी बाल कविताएं / बालगीत, भाषा एवं शिल्प के स्तर पर भी अनोखे जान पड़ते है। 'दिग्गज' जी की बाल कविताओं में भाषा विषय के अनुरूप स्वयं को गढ़ती हुई चलती है। बालपन से उनका यह विलक्षण तादात्म्य या विशिष्ट भाषा शैली ही उन्हें समकालीन बाल कवियों से पृथक एक पहचान प्रदान करती है। विज्ञापन शैली में लिखी उनकी लोकप्रिय और लम्बी बालकविता "सरकस' की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य है
ये तो थे जलथल के प्राणी,
आगे है इस तरह कहानी।
दस हाथी, बाईस घोड़े हैं।
सत्रह बाघों के जोड़े है।
पन्द्रह ऊँट, रीछ है ग्यारह,
बबर शेर हैं पूरे बारह ।
शुतरमुर्ग है अफ्रीका का
अड़ियल गैडा अमरीका का ।
कंगारू, जिराफ, जेबरा ।
मगरमच्छ, घड़ियाल कोबरा ।

'दिग्गज' जी ने बाल कवियों के परम्परागत और प्रिय विषयों के अलावा सोच के स्तर पर मौलिक एवं आधुनिक विषयों पर केन्द्रित बाल
कविताओं की रचना भी की है। उनकी कविता 'तारे' सचमुच बालकवि 'दिग्गज' के आधुनिक दृष्टिकोण का परिचय हमें कराती है।
ये असंख्य टिमटिमा रहे जो ।
तारे नभमण्डल में ।
ये धरती से भी विशाल हैं।
निज स्वरूप निज बल में।
किन्तु आज तक की खोजों में।
जीवन कहीं न पाया।
यह सुख यह अनुभव केवल ।
अपने हिस्से में आया।

'दिग्गज' जी ने छोटी बड़ी दो सौ से भी अधिक बाल कविताओं / बालगीतों की रचना की है। इनमें से अनेक का प्रकाशन बच्चों की प्रसिद्ध 'नंदन', 'बाल भारती' 'पराग' और 'सुमन सौरभ' सरीखी पत्रिकाओं में हो चुका है। बाल साहित्य में उनका स्थान हेंस क्रिश्चियन एंडरसन, इनिड ब्लाइटन या आर्कादी गाइदार जैसा भले ही न हो लेकिन वे हिन्दी के अप्रतिम बाल कवि तो है ही।


✍️ राजीव सक्सेना
डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

बुधवार, 19 जुलाई 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दिग्गज मुरादाबादी की काव्य कृति ....सीता का अंतर्द्वंद्व । उनकी यह कृति वर्ष 2001 में प्रज्ञा प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुई है। इसका संपादन किया है डॉ प्रेमवती उपाध्याय ने तथा भूमिका लिखी है डॉ रामानंद शर्मा ने ।


 क्लिक कीजिए और पढ़िए पूरी कृति

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:::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822